अंदाज़-ए-ज़िन्दगी

मैंने हर दबी हुई आवाज को अपनी आवाज़ बना लिया
कुछ यूं अब अपने जीने का अंदाज़ बना लिया

लोग भले ही डरते रहें सच बोलने के अंजाम से
मैंने उसी अंजाम को अपना आग़ाज़ बना लिया

जिंदगी ने दर्द भी दिए कभी मायूस सी भी लगती है
मैंने अपने उसी दर्द को दिल का साज़ बना लिया

थोड़े थपेड़े क्या लगें ये फ़ौरन डूबने लगती थी
मैंने उस दरिया की कश्ती को समंदर का जहाज़ बना लिया

उसे ख्वाहिश हुआ करती थी मुझे आसमां में देखने की
मैंने अपने लबों से खुद को परवाज़ बना लिया

कभी कुछ ना कहना हो तो ख़ुद से ही बात किया करता हूं
मैंने अपने साए को ही अपना हमराज़ बना लिया

                          ✍️ अनवर ख़ान “इंक़लाब”

Bolnatohai

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