कभी कभी तो कांटा और कभी गुलाब लगती है।
कभी तो कोरा पन्ना,कभी पूरी किताब लगती है।
चारों और इतनी सिसकियां इतने दर्द इतनी चीखें हैं,
कभी ये ज़िन्दगी उजाड़ और कभी अज़ाब लगती है।
जाने कितने घर उजड़े हैं जाने कितनी गोदें सूनी हैं,
जानें कितनी मांगें उजड़ी और जाने कितनी चूड़ी टूटी हैं,
कितने यतीम हुए, कितने वीराँ हुए काश तुम्हारा भी कोई होता, समझ पाते
कैसे पूरी की पूरी ज़िंदगी कोई घर बनाने में सहाब लगती है
वो माँ जो ऑटो में बैठी है लाश कदमों में लेकर उसका एक ही तो बेटा था।
वो पत्नी थी जो मुंह से सांसें दे रही थी गोद में मरा हुआ उसका पति लेटा था।
वो पिता बैठा है सोच रहा है कि आखिर कैसे में जलाऊं,
कहाँ से लाऊं लकड़ियां चिता में तो लकड़ी बेहिसाब लगती है
वो बेमिसाल ज़िन्दगी वो हवा में उड़कर ज़मीं पर तेरा अकड़ कर चलना
हमेशा सहारे के लिए नफरत की बैसाखियाँ पकड़ कर चलना
तेरा हर ज़िम्मेदारी से गिद्धों के सहारे बच के निकल जाना
तू भोला है भूल जाता है जब वो लाठी लगती है तो बड़ी लाजवाब लगती है।
😭😭😭