तेरे ही साथ हो ज़िंदगी का सफ़र ये ज़रूरी तो नहीं है
एक तू ही हो हमसफ़र यह ज़रूरी तो नहीं है
मैं तो निकल पड़ा हूं देखते हैं यह रास्ता कहां ले जाता है
निकलने से पहले हो मंज़िल की ख़बर यह ज़रूरी तो नहीं है
मेरे अल्फाज़ ही काफी है तुझे बर्बाद करने को
हाथ में रखूँ खंजर ये ज़रूरी तो नहीं है
हर ज़ालिम को मरना है जिंदगी भी बदहाल होती है
सब देखें यह मंज़र यह जरूरी तो नहीं है
सोने वाले तो मौत की नींद में भी गहराइयों से सोते हैं
हर बार हो तकिए पर सर यह ज़रूरी तो नहीं है
उसकी कालिख़ देखने के लिए एक जुगनू ही काफी था
साथ में हो सूरज और हो दोपहर यह ज़रूरी तो नहीं है
✍️ अनवर ख़ान “इंक़लाब”