ज़िन्दगी – zindagi

ए जिंदगी तूने हर लम्हे को पतझड़ बना दिया
तू ही बता मैं तुझे बहार कैसे कहूं

तू बेवफ़ा भी है और मुख़्तसर भी है आखिर मैं तुझे वफ़ादार कैसे कहूं

जिन रास्तों पर तूने मेरी कांटे बिछा दिए उस मंजिल को मैं गुले-गुलज़ार कैसे कहूं

जो मेरा अपना था उसी के हाथ में खंजर था
तो मैं अपने दुश्मन को गद्दार कैसे कहूं

जब भी मिलता है मुझसे मेरा दिल तोड़ देता है
आखिर उस सितमगर को अपना प्यार कैसे कहूं

जब मेरा घर जल रहा था खड़े सभी मुस्कुरा रहे थे
इन्हें जालिम ही कहूं अपना रिश्तेदार कैसे कहूं

उन्हें जब भी चीज जरूरत मेरा साया साथ था
वो आदत से ही है मक्कार कैसे कहूँ
  

✍️ अनवर ख़ान “इंक़लाब”

Bolnatohai

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