आज़ादी और विचारों की ग़ुलामी

मेरे जीवन में 15 अगस्त के दिन का एक अलग ही महत्व है उसका सबसे बड़ा कारण है देश की आज़ादी तो है ही उसके साथ जन्मदिन होने के कारण इस दिन लोगों की खास नज़रे इनायत रहती है और बहुत सारी दुआओं से भी नवाज़ा जाता है जिसके कारण ये खास दिन और भी खास हो जाता है।
आज के दिन पूरा देश जश्ने आज़ादी में डूबा हुआ दिखाई देता है चारों और जैसे हर्षोल्लास की लहर फैल जाती है प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रभक्ति के रस में डूबा हुआ दिखाई देता है जिसकी भी प्रोफाइल पिक्चर देखो स्टेटस या स्टोरी देखो केवल आज़ादी से सम्बंधित पोस्ट और तस्वीरें दिखाई देती हैं। हर कोई तिरंगे के रंग में रंगा दिखाई देता है।

इस दिन हर कोई अपने वीरों की शहादत को याद करके और जंगे आज़ादी के किस्सों के साथ उन गीतों को गाता हुआ देशभक्ति से ओतप्रोत दिखाई देता है। चारों और एक पॉजिटिव किरणें सी महसूस होती हैं। ऐसा लगता है जैसे राष्ट्रीय ध्वज के लहराने से ऐसी हवा चली है कि उस हवा ने फ़िज़ा से नफ़रत के वातावरण को कहीं दूर उड़ा दिया है।

जो रंग आज नफरत का पर्याय बनते जा रहे हैं और जो समाज रंगों में बंटने और बांटने को आतुर दिखाई दे रहा है उनके पास से वो सारे केसरिया और हरे रंग उस ध्वज में समाहित हो गए हैं और उसको एक सूत्र में पिरो दिया है। इस दिन कोई केसरिया और हरा रंग दिखाई नहीं देता अगर दिखाई देता है तो बस तिरंगा और वो दोनों रंग और उनके बीच एक सुकून व शांति का सफ़ेद रंग।

केवल शांति के रंग के आने के बाद से ही वो दोनों रंग अपना व्यक्तिगत वजूद खो देते हैं और स्वयं को तिरंगे में समाहित कर देते हैं।

स्कूलों, दुकानों, मकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से लेकर ऑफिस और फैक्टरियों तक तिरंगा ही तिरंगा दिखाई देता है और सब कुछ तीनो रंगों में सजा हुआ दिखाई देता है कहीं गुब्बारे कहीं पट्टियां चारों और केवल तीन रंग।

यही सब सोचते सोचते एक बात मन में आई और शायद हर उस हिंदुस्तानी के आती होगी जिसको इस देश से प्यार है कि अगर यही शांति लोगों के जीवन मे आ जाये तो क्या ये पॉजिटिव किरणें हमारे जीवन में खुशियां नहीं भर सकती हैं।

क्या सारा देश जाति धर्मों से ऊपर उठकर संविधान के प्रारूप के अनुसार एक सूत्र में स्वयं को नहीं पिरो सकता?

क्यों एक दूसरे के लिए खून बहा देने वाले लोग आज एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं?

क्यों उन्हें किसी दूसरे धर्म या जाति के इंसान को परेशान करके या उसकी पिटाई या लिनचिंग से खुशी मिलती है?

आखिर वो कौन सी शक्ति और विचार है जो उन्हें आपस में प्रेम करने और आपसी सद्भाव से रोक रहा है?

एक बात गौर करने लायक है कि इस दिन बहुत सारे ऐसे लोग भी नफरत से दूर दिखाई देते हैं जिन्होंने अब इस घृणा को अपने जीवन का सार या ज़िन्दगी का हिस्सा बना लिया है। बिना नफरत किये और फैलाये हुए जिन नेताओं और लोगों को खाना भी हज़म नहीं होता उनकी राजनीति दम तोड़ती दिखाई देती है वो भी आज आपसी भाईचारे की पोस्ट करते हुए दिखाई देते हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने देश की धरोहरों तक को धार्मिक रंग दे दिया है।

बहुत सारे ऐसे नेता देखे हैं जिनके जीवन में अगर नफरत न होती तो आज शायद कोई उनका नाम भी नहीं जानता होता। आज उनका मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, ठाठ-बाट,विलासिता, बच्चों का पालन पोषण उनकी शिक्षा यहां तक कि उनका भोजन तक उसी नफरत की देन है। अगर नफरत न होती तो वो भी नहीं होते किसी बस स्टैंड या प्लेटफार्म पर भीख मांगकर अपना जीवन यापन कर रहे होते।

उनकी नफरत ने आज हाल ये कर दिया है कि ये नफरत हर घर और हर मन तक पहुंचती जा रही है खाने से लेकर पहनावा तक नफरत का शिकार होता जा रहा है और ये धीरे धीरे ये नफरत सबको अपना शिकार बनाती जा रही है।

उसका शिकार कहीं भी कोई भी हो जाता है कभी उसका शिकार कोई पुलिसवाला हो जाता है कभी कोई डॉक्टर, कोई ऑटोवाला, कभी कोई छोटी से बच्ची और कभी कोई छोटी सी बच्ची का पिता।

अभी हाल में ही एक घटना चर्चित हुई एक छोटी सी बच्ची के पिता को पीटकर उसको धार्मिक नारे लगाने को बोला गया और वो मासूम अपने पिता को बचाने की गुहार लगाती रही। कहीं कुछ युवक किसी युवती को उसके धर्म के कारण प्रताड़ित करते हैं कोई धर्म इस नफरत से अछूता नहीं रहा है।

एक खास विचारधारा के लोगों ने देश में अति कर दी है। चिंता का विषय ये है कि इस उग्र भीड़ में युवाओं की संख्या सबसे अधिक हैं, और जैसी कि धारणा है कि किसी भी देश का युवा देश का भविष्य होता है इससे सहज अंदाज़ हो जाता है कि देश का भविष्य अपने निजी स्वार्थ के कारण कहाँ ले जाया जा रहा है।

मेरी उन युवाओं से गुज़ारिश है और कुछ प्रश्न भी हैं कि:-

जो प्रेम और देशभक्ति केवल 15 अगस्त के लिए सीमित हो जाती है वो पूरे साल और पूरे जीवन में अगर हो जाये तो क्या हमारे देश की जो कट्टरवादी छवि आज दुनिया मे बनती जा रही है हम सब मिलकर उसको बदल नहीं सकते हैं?

क्या हम सबकी ये ज़िम्मेदारी नहीं है कि हम अपने देश की धूमिल होती छवि को बचाएं?

क्या हम इस नफ़रत के सहारे वाक़ई देश को विश्वगुरु बनाने की राह पर ले जा रहे हैं?

क्यों हम पढ़े लिखे होकर भी अनपढ़ जाहिल नेताओं के हाथों की कठपुतली बन गए हैं?

हम सब जाति धर्म से ऊपर उठकर एक दूसरे का हाथ हाथ में लेकर तरक्की की राह पर नहीं बढ़ सकते?

अगर एक समुदाय को देश से विस्थापित भी कर दें तो क्या देश तरक्की कर जाएगा ?
क्या जिन देशों ने धर्म के आधार पर खुद को बांट दिया क्या वहां तरक्की हो गयी?

अगर आपको ये सवाल जायज़ लगें तो ज़रूर इस दिशा में काम करने की ज़रूरत है ये देश हमारा है ये लोग हमारे हैं देश को और लोगों को बचाने की ज़िम्मेदारी भी हमारी है।

ये नेता हमसे दंगे करवाकर,अपने झंडे उठवाकर, नारे लगवाकर अपने बच्चों को केम्ब्रिज, हार्वर्ड, ट्रिनिटी कॉलेजों में भेजते रहेंगे और उनको बड़े बड़े संस्थानों में बड़े पद पर बैठाकर मलाई चटवाते रहेंगे और हम केवल भीड़ का हिस्सा बनकर अपनी तरक्की को अपने ही पैरों तले कुचलते रहेंगे। चुनाव आपका है।

हम सोचें कि ये कैसी आज़ादी कि हम आज़ाद तो हो गए लेकिन विचारधाराओं के ग़ुलाम हो गए और उसकी जंजीरों में खुद को कैद कर लिया। आपको ये ब्लॉग कैसा लगा आपसे अनुरोध है अपनी राय अवश्य दें या इससे संबंधित आपके जो भी प्रश्न हों आप कमेंट बॉक्स में जाकर पूछ सकते हैं। धन्यवाद।

Bolnatohai

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