बेरहम

कभी कभी तो कांटा और कभी गुलाब लगती है।    कभी तो कोरा पन्ना,कभी पूरी किताब लगती है।      चारों और इतनी सिसकियां इतने दर्द इतनी चीखें हैं, कभी ये ज़िन्दगी उजाड़ और कभी अज़ाब लगती है।

जाने कितने घर उजड़े हैं जाने कितनी गोदें सूनी हैं।।  जानें कितनी मांगें उजड़ी और जाने कितनी चूड़ी टूटी हैं। कितने हुए यतीम, कितने घर हुए बर्बाद, तुम क्या जानो  एक घर बनाने में कैसे पूरी ज़िंदगी, सहाब लगती है

वो माँ जो ऑटो में है, एक लाश कदमों में लेकर उसका वो बेटा है,                                                          वो पत्नी है जो मुंह से सांसें दे रही है गोद में मरा हुआ उसका पति लेटा है।

वो पिता सड़क किनारे बैठकर सोच रहा है कि आखिर इतनी कहाँ से लाऊँ।                                          एक चिता में तो लकड़ी बेहिसाब लगती है

वो तेरी बेमिसाल ज़िन्दगी, वो हवा में उड़कर ज़मीं पर तेरा अकड़ कर चलना,                                      हमेशा सहारे के लिए तेरा वो नफरत की बैसाखियाँ पकड़ कर चलना।

तेरा हर ज़िम्मेदारी से तेेरेे पालेे हुए गिद्धों के सहारे बच के निकल जाना।                                                  भोला है बेचारा, भूल जाता है जब उसकी लाठी लगती है तो बड़ी लाजवाब लगती है।

Bolnatohai

Bolnatohai

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *