जब भी घर में जाता हूं वह दौड़ के लिपट जाती है
वह मेरी बेटी ही है जिससे मेरी दुनिया जगमगाती है
मुझे खामोश देखकर आकर मेरी गोद में लेट जाती है
मुझे हंसाने के लिए खुद ही टेढ़े मेढ़े मुंह बनाती है
वैसे तो बहुत छोटी है लेकिन कितनी भी भूखी हो
मैं जब आ जाऊं तो खाना मेरे हाथ से ही खाती है
मुझे मेरे लफ्ज़ों से और मेरे अंदाज ए बयां से मोहब्बत है
लेकिन अंदाज़ उसका निराला है जब हर बात पर तोतलाती है
जब भी खिज़ां का दौर आया हो और ख्वाबों के पत्ते टूट जाते हों
वह सिर्फ मेरी बेटी ही है जो मेरी ज़िंदगी में फिर से बहार लाती है
मेरा ख़ुदा भले मुझसे नाराज़ हो लेकिन फिर भी सब अता करता है
शायद मेरी बेटी ही वो नेअमत है जो खुदा से मेरे लिए नेअमतें मंगवाती है