दो बूंद भी लिखने बैठूं तो सैलाब लिख जाता है।
में मोहब्बत भी लिखता हूँ तो इंक़लाब लिख जाता है।
ज़िन्दगी की उलझनों ने अब मुझे कुछ यूं सुलझा दिया है।
किसी का कोई सवाल भी लिखूं तो जवाब लिख जाता है।
उसकी मोहब्बत के ज़ुल्मों की इबारत, मैं क्या लिखूं।
आता तो है टीस की तहरीर लेकर और पूरी किताब लिख जाता है।
उस नादाँ ने कुछ यूं असर किया है अब मेरे वजूद पर।
उसके गुनाहों का हिसाब करता हूँ तो सवाब लिख जाता है।
अब तो मुझे खुद भी हंसी आती है अपनी बेबस उंगलियों पर।
उसे दुश्मन मैने, जब भी लिखा कमबख्त एहबाब लिख जाता है।
और शायद वो कुछ यूं सताया गया है, उसे अब किसी पे भरोसा नहीं रहा,
मैं उसे यक़ीन के चंद अल्फ़ाज़ सुनाता हूँ वो फरेबों की पूरी किताब लिख जाता है।
उसके चेहरे के मासूम नूर की मैं बात ही क्या करूँ,
कभी उसका नाम आफताब तो कभी मेहताब लिख जाता है।
ज़माना उसे न जाने किस नाम से बुलाता होगा, मुझे क्या मालूम
में तो जब भी उसका नाम लिखना चाहता हूँ मुझसे गुलाब लिख जाता है।