जातिवाद – एक ढकोसला

 आप लोगों ने अक्सर एक कथन  पढ़ा और सुना होगा कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना या तो देवता रह सकते हैं या फिर पशु” उसी समाज में हमारे आसपास प्रत्येक क्षण ऐसा कुछ न कुछ घटित हो रहा होता है जो उसी समाज में व्याप्त बुराई की पोल खोल देता है।

बुराई को अनदेखा किया जाता है

कभी इसको देखकर भी हम अनदेखा कर देते हैं और कभी कभी देख ही नहीं पाते उसका कारण है कि वो बुराई इतनी आम हो चुकी होती है कि वो बुराई बुराई ही नहीं लगती और हमे वो सब देखने की आदत हो गयी है।

कल हुई एक घटना ने लिखने को नया विषय दे दिया जो कुछ भी घटित हुआ उसने जो भी सोचने को मजबूर किया, सोचा आप सबके साथ साझा किया जाए एक लेखक की ये विशेषता होती है कि उसको लिखने के लिए किसी कंटेंट के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता है आसपास घटित घटनाएं ही उसको लिखने को मजबूर कर देती हैं या कहिए प्रेरणा बन जाती हैं।

इस पोस्ट के माध्यम से इस बुराई को रोकने के लिए अगर मेरा एक कण भी प्रयास सफल हुआ, तो में स्वयं को धन्य समझूंगा। कुछ लोगों को मेरी बातें चुभ भी सकती हैं या कुछ लोगों का धर्म इससे अलग विचार रखता हो तब भी अपनी बात कहने का अधिकार मेरा संविधान मुझे देता है।

अब आते हैं मुद्दे पर कुुुछ दिन पूर्व मेरे जिम में एक लड़का जो अनुसूचित जाति से है, (उसकी जाति और नाम में नहीं बताऊंगा) वो प्री वर्कआउट फ़ूड के तौर पर केले खा रहा था। मुझे भी भूख लग रही थी तो मैनें भी एक केला मांग लिया। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे कोई अजूबा हो गया हो। मेने पूछा! क्या हुआ केले खत्म हो गए या कम हैं? उसने कहा नहीं ऐसी बात नहीं है आपने मुझसे केला मांगा ये सुनकर मुझे झटका लगा है।

छुआछूत जातिगत है ही नहीं

उसने आगे कहा “जब हम कुछ खरीदने जाते हैं तो लोग हमारे हाथ से लोग पैसे भी ऐसे लेते हैं जैसे उन्हें करंट लग जायेगा और सामान की थैली ऐसे पकड़ाते है जैसे कहीं अगर हमारा हाथ उनके हाथ  को छू जाएगा तो क़यामत आ जायेगी। उससे अंतर नहीं है कि वो और हम और एक ही भगवान को पूजते हैं”

उसने कहा “भईया आपने तो उसी थैली से केला मांग लिया, जिस थैली से मैं खा रहा हूँ। मेने उसको बोला इसमे कुछ अजीब नहीं है। हाँ! अगर तुम कुछ ऐसा खाते हो जो मेरा धर्म मना करता है, तो वो में नहीं खा सकता। सच तो ये है कि जिस बर्तन में तुम वो वस्तु खाओगे में उस बर्तन का भी उपयोग नहीं करूँगा। ठीक वेसे ही जैसे में अपने उस खाने के बर्तन को अपने उस दोस्त के साथ साझा नहीं कर सकता जिसको खाने को उसका धर्म मना करता है।

अगर कोई दोस्त मना करने के बावजूद ज़बरदस्ती खा ले तो वो उसकी मर्ज़ी वेसे भी में सरकार नहीं हूं जो सबके खाने और पीने की चिंता करूँ। जिसकी जो मर्ज़ी हो वो वही खाये और वो उसकी चिंता है इसको उसे ही लेने देना चाहिए वो क्या खाएंगे और क्या नहीं ये वो जाने, ये तय करने वाला मैं कौन होता हूँ?

लेकिन तुमसे केला लेकर खाना मुझे अजीब नहीं लग रहा है, जब में या कोई और तुम्हारे हाथ से पैसे ले सकता है, तो केला क्यों नहीं ले सकता? इसको तुम्हारे मुंह मे से नहीं निकाल रहा हूँ जो मेरा मज़हब खतरे में आ जायेगा तो इसको खाकर मेरा मज़हब भी सलामत है और मेरा पेट भी। ये सुनकर वो हंसने लगा और मैने एक केला खा लिया जब में केला खा रहा था वो तब भी मुझे उत्सुकतावश देख रहा था।

अंतर केवल अमीरी गरीबी और पद का है

दोस्तों जितना मेने देश में देखा है ये अंतर जाति धर्म से अधिक अमीरी और गरीबी का है। कहने को भले ही कुछ भी कहा जाये लेकिन अंतर अनुसूचित और पिछड़ी जाति का है ही नहीं। ये अंतर है केवल अमीरी और गरीबी का, पद और प्रतिष्ठा का।

समाज में अब सम्मान भी पॉवर और पैसों के तराजू में तौलकर दिया जाता है। अगर ये जातिगत अंतर होता, तो मेने बहुत बड़े बड़े और सरमायेदार, रसूखदार कहलाये जाने वाले, और अपनी जाति पर गौरव करने वाले लोगों को इन्हीं अनुसूचित जाति वालों के लिए बड़ी बड़ी दावतें करते देखा है, क्योंकि जिसकी दावत की जा रही है वो कोई बड़ा अधिकारी है, किसी राजनीतिक पार्टी का पदाधिकारी है।

उनके घरों के अंदर सोफों पर बैठकर बेहतरीन बर्तनों में नाश्ते और खाने खिलाते देखा है। और साथ मे खुद उन्हें और उनके परिवार को भी खाते देखा है। बल्कि वो बड़े गौरव से बताते हैं कि हमारे यहां आज अमुक अधिकारी या पदाधिकारी आ रहे हैं। अब ये तो वही जानते होंगे कि उनके जाने के बाद वो उन बर्तनों का क्या करते होंगे। इतने महंगे और सुंदर बर्तनों को फेंकते तो नहीं होंगे।

राजनीतिक लोगों के आगे ढकोसलों की जलती चिता

एक राजनीतिक पार्टी प्रमुख के बारे में कहा जाता है कि उन्हें अपने सामने किसी का बैठना पसंद नहीं है। वो लोगों को अपने दरबार मे ज़मीन पर पड़े गद्दों पर बैठाते हैं और स्वयं एक सिंघासन रूपी कुर्सी पर बैठते हैं। अब सच क्या है ये तो मुझे नहीं पता और अगर ये सच है तो उसी पार्टी में बड़े बड़े रसूखदार और सरमायेदार बाहुबलियों को भी देखा है।

उसी पार्टी में हाजी जी भी हैं और तिलकधारी पंडित जी भी ।अब पता नहीं ये सच है या नहीं और अगर है तो ये लोग ज़रूर अपने बैठने की कुर्सी साथ ले जाते होंगे, या ऐसे ही नीचे बैठते होंगे वेसे सुना है ज़मीन पर अच्छे गद्दे होते हैं केवल फर्श पर नहीं बैठाया जाता है, ऐसा मेने सुना है।

एक ओर तो हम इतने धार्मिक हो जाते हैं की किसी को छूने मात्र से ही, हमारे धर्म या मज़हब को हानि पहुंच जाती है। वहीं दूसरी और हम अपने घरों में भी बैठाते हैं साथ खाते पीते हैं अंतर दोनों इंसानों में केवल पैसों, पद, रसूख और कपड़ों का हो जाता है।

उन कपड़ों के अंदर उसी जाति का इंसान होता है, जिसके हाथ में थैली देने या उसके हाथ से पैसे लेने से किसी का धर्म खतरे में आ जाता है। ये केवल झूठी मान-मर्यादा और झूठी प्रतिष्ठा मात्र है और एक प्रकार से ढकोसला ही है। क्योंकि अगर छूने से धर्म भ्रष्ट होता तो भगवान श्रीराम ने शबरी के झूठे बेर नहीं खाये होते।

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Bolnatohai

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