हर कोई इस तरह जीने का हुनर नहीं रखता।
जो खुद तलवार हो वो अपने पास खंजर नहीं रखता।।
जिसमें हौसले हों टकराने के समंदर के तूफानों से।
इन दरियाओं के थपेड़ों का डर अपने अंदर नहीं रखता।।
बहुत मुश्किलों को सहा है बहुत चोटें इस दिल पर खाई हैं।
मुझे जो कर दे बेचैन इतनी औक़ात कोई मंज़र नहीं रखता।।
ये चापलूसी और तलवे चाटने का दौर है साहेब।
हक़ बात कहने का हर कोई शेरे जिगर नहीं रखता।।
ये तेरे तख्तो ताज तेरे ग़ुरूर के महलों की जगमगाहट।
इससे मुतास्सिर हो जाने का शौक़ ये कलंदर नहीं रखता।।
तुझे खरीदने का शौक़ होगा बाजार में खिलौने बहुत होंगे।
मुझपर चल जाए तेरा जादू शायद वो असर नहीं रखता।।
अपने इस ज़हर को लेकर कहीं भी जा कहीं भी रह।
आस्तीनों में अपनी जगह अब ये “अनवर” नहीं रखता।।